बोधगया: जहां राजकुमार सिद्धार्थ बने भगवान बुद्ध

बिहार की धरती प्रारम्‍भ से ही ज्ञान और तप के लिए जानी जाती रही है। बिहार के गया जिले में स्थित बोधगया का महत्‍व कई मायने में अद्वि‍तीय है। यहीं वो स्‍थान है जहां पर सिद्धार्थ राजकुमार के रूप में आये। यहां की सम्‍पदाओं का उपयोग किया। वे यहां पर कठीन साधना की। अत्‍यन्‍त कठीन पथ को छोड़कर मध्‍यम मार्ग अपनाया।

बोधगया का नामकरण का आधार ही भगवान बुद्ध का ज्ञान है। पालि भाषा में इसे ‘सम्‍बोधि’ कहा जाता है। यहां पर बुद्ध ने ज्ञान की प्राप्‍ति की। इस घटना ने इस स्‍थल को वैश्विक पहचान दिलाया। सभी बौद्ध देशों के बौद्ध मंदिर हैं। विदेशी श्रद्धालुओं ने अपने अपने देश के शैली में ही मंदिर का निर्माण कराया है।

बोधगया घुमने का अर्थ है कि पूरे व‍िश्‍व में भ्रमण करना। कुछ ही घटे में सभी बौद्ध देशों के कला, जीवन शैली और पहनावा से अवगत हो जाना। यहां पर कई देशों के बौद्ध मंदिरों को देखने से उन-उन देशों के वास्‍तुकला का ज्ञान होता है।

वहां की संस्‍कृति में बौद्ध धर्म ने कैसे अपनी पहचान बनाई। इसे जानने के लिए भी बोधगया एक उपयुक्‍त जगह है। बौद्ध धर्म जिस भी देश में गया वहां की संस्‍कृति के अनुसार ही अपना स्‍वरूप बना लिया। इसीलिये कोई भी दो बौद्ध देश के बौद्ध संस्‍कृति में बहुत ही ज्‍यादा का अंतर पाया जाता है।

भगवान बुद्ध ने लगभग 6 वर्षों तक मगध क्षेत्र में कठीन साधना की। वे कठोर तपचर्या का अभ्‍यास किये। उन्‍होंने अन्‍न एवं जल का लगभग त्‍याग कर दिया था। पालि साहित्‍य में लिखा हुआ है कि वे अन्‍न का एक एक दाना ही एक दिन में खाते थे। कुछ दिन के लिए तो वे उसका भी त्‍याग कर दिये थे। उनका शरीर में सिर्फ हड्डी ही बच गया था। मांस के नाम पर सिर्फ चमडी ही बची थी। उनका कंकाल जैसा मूर्ति इस घटना को बताने के लिये ही है। ढुंगेश्‍वरी पहाडी पर इस कंकाल जैसे बुद्ध के मूर्ति का निर्माण हुआ है। तब उन्‍हें सुजाता नामक कन्‍या ने खीर खिलाया। वे खीर खाकर पीपल के पेड़ के निचे ज्ञान प्राप्‍त करने के लिए दृढ़ संकल्‍प लेकर बैठे। उन्‍होंने दृढ़ संकल्‍प लिया की चाहे मेरी नश ही क्‍यों न सुख जाए, चाहे मेरी हड्डी ही क्‍यों न गल जाए, चाहे मेरा जान ही क्‍यों न चली जाए। परन्‍तु मैं यहां से तभी उठु्ंगा जब मुझे ज्ञान की प्राप्‍ति हो जाए। इस प्रकार की दृढ़ प्रतिज्ञा को हिन्‍दू धर्म में भीष्‍म प्रतिज्ञा कहते हैं। परन्‍तु पालि साहित्‍य या बौद्ध साहित्‍य में इसे अधिष्‍ठान पारम‍िता कहते हैं। परमिता का अर्थ होता है कि एक सीमा के पार चला जाना। यह पारमिता तीन प्रकार की होती है। जब पारमिता का आधार कोई वस्‍तु हो तो वह सामान्‍य पारमितमा कहलाता है। जब उसका आधार कोई शरीर का अंग हो तो वह विशेष पारमिता कहलाता है। और जब इसका आधार जीवन का मूल्‍य ही हो तो वह परमत्‍थ पा‍रमिता कहलाता है। बोधगया में भगवान बुद्ध ने ‘परमत्‍थ पारमिता’ का पालन किया था। क्‍योंकि वे दृढ़ प्रतिज्ञा लेकर बैठे थे कि जब तक ज्ञान की प्राप्ति न हो जाए तबतक पीपल के वृक्ष से उठेंगे नहीं।

उन्‍होंने ज्ञान प्राप्‍त कर ही इस स्‍थान को छोडा। जिस दिन वे ज्ञान प्राप्‍त किये उस दिन पूर्ण‍िमा था। इस‍ीलिए इस पूर्ण‍िमा को बुद्ध पूर्ण‍िमा कहते हैं। इस दिन से संसार के अंतिम सच्‍चाई को बुझ गये इसीलिए वे बुद्ध कहलाये। पालि में कहा गया है कि जो बुझ (जान ) गया वो ही बुद्ध  है। भगवान बुद्ध ने जीवन के पूर्व जन्‍म को जाने इसलिये बुद्ध कहलाये। वे भविष्‍य जीवन को भी जाने इसलिए वे बुद्ध कहलाये। ये वर्तमान, भूतकाल और भविष्‍यकाल तीनों की कालों को देख सकने की क्षमता ग्रहण किये। इसलिये बुद्ध कहलाये।

अत: भगवान बुद्ध यहां पर आये थे कोशल के एक राजकुमार के रूप में। परन्‍तु मगध की घरती ने उन्‍हें ज्ञान प्राप्‍त करने में सहायक बनी। जो एकांत चिंतन के लिये वातावरण चाहिए वो प्रदान किया। इसलिये गया से सटे इस भूभाग को बोधगया कहते हैं।  जिस स्‍थान पर भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्‍त किया वहींं पर महाबोधी मंदिर बनाया गया है। यहां पर भगवान बुद्ध की एक बहुत ही आकर्षक मूर्ति स्‍थापित है।

आप जीवन में एक बार बोधगया घुमने अवश्‍य आयें।

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