बिहार में पर्यटन करना हो और बोधगया का जिक्र न आये ये हो ही नहीं सकता है। भगवान बुद्ध और बौद्ध धर्म के बिना बिहार अधूरा है। विश्व को भारत के योगदान में बिहार का योगदान बहुत है। इसमें बौद्ध धर्म को योगदान उल्लेखनीय है। पर्यटक बिहार आने के बाद बोधगया का यात्रा करना नहीं भूलते हैं। यहां देशी पर्यटक और विदेशी पर्यटक दानों की संख्या काफी होती है। ठण्ड के मौसम में विदेशी पर्यटकों की संख्या थोडी अधिक होती है। इन दिनों बौद्ध महोत्सव भी होते हैं।
ज्ञान प्राप्ति के बाद बोधगया में बुद्ध सात सप्ताह रुके। बौद्ध धर्म में एक महत्वपूर्ण काल है। इसमें से प्रथम चार सप्ताह वे बोधिवृक्ष के पास बिताये। अंतीम के तीन सप्ताह वे बोधिमंडल में ही बिताये परन्तु बोधिवृक्ष से थोडा सा ही दूरी पर बिताये।
आइए जानते हैं सात सप्ताह की कहानी साधारण शब्दों में:-
पहले सप्ताह
पहला सप्ताह बुद्ध बोधि वृक्ष के नीचे ही बिताये। ध्यान और साधना करते हुए। उन्होंने अपने गहरे अनुभव से उत्पन्न शांति और आनंद का स्वाद लिया। वे बोधि प्राप्ति के प्रथम रात के प्रथम याम में प्रतीत्य-समुत्पाद का पहले अनुलोम मनन किया इसके बाद वे इसका प्रतिलोम मनन किया। अनुलोम में से प्रतीत्य-समुत्पाद की बारह कडि़यों को आदि से अंत की ओर मनन किया और प्रतिलोम में वे अंत से आदि की ओर बारह कडियों का मनन किया। अनुलोम प्रतीत्य-समुत्पाद की कडियाँ पालि में इस प्रकार से हैं:-
अविज्जापच्चया सङ्खारा, सङ्खारपच्चया विञ्ञाणं, विञ्ञाणपच्चया नामरूपं, नामरूपपच्चया सळायतनं, सळायतनपच्चया फस्सो, फस्सपच्चया वेदना, वेदनापच्चया तण्हा, तण्हापच्चया उपादानं, उपादानपच्चया भवो, भवपच्चया जाति, जातिपच्चया जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा सम्भवन्ति – एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होति।:
विनय पिटक/बोधि कथा/ महावग्ग
इसका हिन्दी अर्थ है कि अविद्या से संस्कार की उत्पत्ति होती है। संस्कार से विज्ञान उत्पन्न होता है। विज्ञान से नाम-रूप, नाम-रूप से सळायतन, सळायतन से स्पर्श, स्पर्श से वेदना और वेदना से तण्हा, तण्हा से उपादान, उपादान से भव, भव से जाति, जाति से जरा यानि बुढ़ापा, मरण, शोक, रोना, पिटना, दु:ख, चित्त विकार और चित्त-खेद उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार से केवल दु:ख ही दु:ख ही उत्पत्ति होती है।
प्रतीत्य-समुत्पाद की प्रतिलोम की कड़ियाँ पालि में इस प्रकार से हैं:-
अविज्जायत्वेव असेसविरागनिरोधा सङ्खारनिरोधो, सङ्खारनिरोधा विञ्ञाणनिरोधो, विञ्ञाणनिरोधा नामरूपनिरोधो, नामरूपनिरोधा सळायतननिरोधो, सळायतननिरोधा फस्सनिरोधो, फस्सनिरोधा वेदनानिरोधो, वेदनानिरोधा तण्हानिरोधो, तण्हानिरोधा उपादाननिरोधो, उपादाननिरोधा भवनिरोधो, भवनिरोधा जातिनिरोधो, जातिनिरोधा जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा निरुज्झन्ति – एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स निरोधो होती’’ति।
विनय पिटक/बोधि कथा/ महावग्ग
इसका हिन्दी अर्थ है कि अविद्या के विनाश से संस्कार का विनाश होता है। संस्कार के विनाश से विज्ञान का विनाश होता है। विज्ञान से नाम-रूप, नाम-रूप से सळायतन, सळायतन से स्पर्श, स्पर्श से वेदना और वेदना से तण्हा, तण्हा से उपादान, उपादान से भव, भव से जाति, जाति से जरा यानि बुढ़ापा, मरण, शोक, रोना, पिटना, दु:ख, चित्त विकार और चित्त-खेद का नाश होता है। इस प्रकार केवल दु:ख ही दु:ख का विनाश होता है।
दूसरे सप्ताह
दूसरे सप्ताह में भी बुद्ध ने ध्यान करना जारी रखा और धर्म की विचारधारा की। माना जाता है कि उन्होंने बोधि वृक्ष की ओर कृतज्ञता के साथ खड़े होकर देखा। दूसरे सप्ताह में भगवान बुद्ध बोधि वृक्ष से उठकर उत्तर-पूर्व की दिशा में खड़े होकर एक सप्ताह तक बोधि वृक्ष को देखते हुए बिताया। यह स्थान बौद्ध साहित्य में अनिमेष चैत्य कहा जाता है। इस सप्ताह में वे बिना पलक झपकाये एक सप्ताह तक बोधि वृक्ष को देखते रहे।
तीसरे सप्ताह
तीसरे सप्ताह में बुद्ध पूर्व से पश्चिम की ओर टहलते हुए बिताए। पुरा एक सप्ताह तक वे टहलते रहे। इस टहलने के स्थान को रत्न-चंक्रम चैत्य के नाम से जाना जाता है। जब आप बोधगया जायेंगे तो वहां पर एक पट्ट पर चंकमन चैत्य लिखा है। वहां वहीं पर बुद्ध ये सप्ताह बिताये थे।
चौथे सप्ताह
बुद्ध ने जिस स्थान पर पुरा सप्ताह बिताया उसका नाम है रत्न-चैत्य। पालि साहित्य में इस प्रकार से वर्णन आता है कि इस स्थान को देवताओं ने बनाया है। इस स्थान पर भगवान बुद्ध ने एक सप्ताह तक अभिधम्म पर चिंतन-मनन किया। चौथे सप्ताह को ही अभिधम्म की प्राप्ति का काल कहा जाता है। इस प्रकार से भगवान बुद्ध चार सप्ताह बोधि वृक्ष के पास ही बिताया।
पाँचवे सप्ताह
पाँचवे सप्ताह में वे अजपाल वृक्ष के पास गये। इस वृक्ष का नाम अजपाल पडने का कारण पालि साहित्य में बताया गया है यहाँ पर अजपाल नामक बकरी चराने वाले आकर बैठते थे इसलिए इस स्थान का नाम अजपाल पड़ा। अजपाल एक बर्गद का पेड़ था। पुरा एक सप्ताह तक बुद्ध मोक्ष का आनन्द लेते रहे। यहाँ पर भगवान से मिलने के लिए एक ब्राह्मण आये। उन्होंने भगवान से कुशल क्षेम पूछने के बाद एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा कि ब्राह्मण किसे कहते हैंॽ
कित्तावता नु खो, भो गोतम, ब्राह्मणो होति, कतमे च पन ब्राह्मणकरणा धम्मा’’ति? विनय पिटक/बोधि कथा/ महावग्ग
विनय पिटक/बोधि कथा/ महावग्ग
इसका उत्तर भगवान बुद्ध पालि में इस प्रकार से देते हैं:-
यो ब्राह्मणो बाहितपापधम्मो।
निहुंहुङ्को निक्कसावो यतत्तो।
वेदन्तगू वुसितब्रह्मचरियो।
धम्मेन सो ब्रह्मवादं वदेय्य।
यस्सुस्सदा नत्थि कुहिञ्चि लोके’’ति॥
विनय पिटक/बोधि कथा/ महावग्ग
जिसका अर्थ है कि कि जो विद्वान सभी पाप से मुक्त है, किसी भी प्रकार का मल से रहित है, अभिमान से भी रहित है, अभिमान से भी मुक्त है इस प्रकार के लोगों का संसार में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता है।
छठे सप्ताह
भगवान मुचलिंद नामक वृक्ष के पास जाकर एक सप्ताह बिताते हैं। वहां वे एक सप्ताह तक निवार्ण और मुक्ति के विषय में चिंतन मनन करते हैं। उस समय एक सप्ताह तक ठंडी हवा चलती रही और बादल आकाश में छाये रहे। भगवान को ठंड से बचाने के लिए एक नागराज वहां पर आए और सात बार लपेटकर उपर से फन बनाकर उन्हें शीत, उष्ण, डंस, मच्छर और ठंडी हवा से बुद्ध को बचाया। जब ठंड समाप्त हो गया और बादल पुरी तरह से हट गए तो वह नागराज बालक के रूप में बुद्ध के पास आया। भगवान बुद्ध ने उससे पालि में इस प्रकार कहा:-
‘‘सुखो विवेको तुट्ठस्स, सुतधम्मस्स पस्सतो।
अब्यापज्जं सुखं लोके, पाणभूतेसु संयमो॥
‘‘सुखा विरागता लोके, कामानं समतिक्कमो।
विनय पिटक/बोधि कथा/ महावग्ग
जिसका अर्थ है कि तो संतुष्ट है, सही और गतल में विभेद करने योग्य है, एकांत में रहकर सुख का अनुभव करता है। इस संसार के द्वन्द्व से मुक्त है, संयमी है, सभी प्रकार की काम वासनाओं से मुक्त है, इस लोक में एक वैरागी का जीवन जीता है, वैसे व्यक्ति को ही परम सुख की प्राप्ति होती है।
सातवें सप्ताह
बुद्ध राजायतन वृक्ष के पास गये। वहां पर एक सप्ताह तक मोक्ष का आनन्द का लिये। यहीं पर उत्कल (ओडिसा) देश का दो व्यापारी तपस्सु और भल्लिक भगवान से मिलने आये।
उनके देवता ने उन्हें इस प्रकार पालि में कहा:-
‘‘अयं, मारिसा, भगवा राजायतनमूले विहरति पठमाभिसम्बुद्धो; गच्छथ तं भगवन्तं मन्थेन च मधुपिण्डिकाय च पतिमानेथ; तं वो भविस्सति दीघरत्तं हिताय सुखाया’’ति।
विनय पिटक/बोधि कथा/ महावग्ग
इसका हिन्दी इस प्रकार है कि मित्र! बुद्ध होकर यह भगवान राजायत वृक्ष के नीचे विहार कर रहे हैं। जाओ उन भगवान को मट्ठा और लड्डु से सम्मानित करो। ऐसा करने से तुम दीर्घ काल तक हित और सुख का लाभ होगा।
वे दोनों भगवान से जाकर इस प्रकार से बोलते हैं:-
‘‘पटिग्गण्हातु नो, भन्ते, भगवा मन्थञ्च मधुपिण्डिकञ्च, यं अम्हाकं अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया’’ति।
विनय पिटक/बोधि कथा/ महावग्ग
जिसका हिन्दी इस प्रकार है कि भन्ते! भगवान! हमारे मट्ठे और लड्डुओं को स्वीकार कीजिये, जिससे कि चिरकाल तक हमारा हित और सुख हो।
जब भगवान बुद्ध उनका दान स्वीकार कर लेते हैं तो वे दोनों बुद्ध और धम्म की शरण में चले आते हैं । वे कहते हैं कि:-
‘‘एते मयं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छाम धम्मञ्च, उपासके नो भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेते सरणं गते’’ति।
विनय पिटक/बोधि कथा/ महावग्ग
जिसका हिन्दी इस प्रकार से है कि
भन्ते! हम दोनों भगवान और धम्म की शरण जाते हैं। आज से भगवान हम दोनों को अंजलिबद्ध शरणागत उपासक मानें।
इस प्रकार से दोनों व्यापारी तपस्सु और भल्लिक प्रथम उपासक हो हुए।
इन साप्ताह में भगवान बुद्ध ने सिर्फ ध्यान किया बल्कि वे ज्ञान भी दिये, लोगों की संकाओं का समाधान भी किया। साथ ही साथ वे अपने संघ की नीव भी रखे।
Pic Credit: Mahabodhi Temple Bodhgaya