जानें बुद्ध की माता महामाया के ‘सूंड में श्वेत कमल लिये हाथी’ के सपने के बारे में
महारानी महामाया देखीं कि बोधिसत्व श्वेत हाथी के रूप में तावतिंस लोक से आ रहे हैं। उनका सूंड बहुत ही सुन्दर लग रहा है। वे सूंड में श्वेत कमल का फूल लिये हुए हैं।
महारानी महामाया देखीं कि बोधिसत्व श्वेत हाथी के रूप में तावतिंस लोक से आ रहे हैं। उनका सूंड बहुत ही सुन्दर लग रहा है। वे सूंड में श्वेत कमल का फूल लिये हुए हैं।
………………. वह दान करने वाली होतीं हैं। उनका सदाचार भी बहुत उच्च कोटि का होता है। वाणी से, काय से और मन से बहुत संयमित होती हैं। इन तीनों ही प्रकारों से किसी को किसी प्रकार का अहित नहीं सोचती हैं। उनमें त्याग का भाव बहुत अधिक होता है। ज्ञान अर्जन करने की लालशा होती है। किसी से भी ज्ञान अर्जत करने के लिए उत्सुक होते हैं। उत्साह की कोई कमी नहीं होती है। …………..
इन साप्ताह में भगवान बुद्ध ने सिर्फ ध्यान किया बल्कि वे ज्ञान भी दिये, लोगों की संकाओं का समाधान भी किया। साथ ही साथ वे अपने संघ की नीव भी रखे।
पहली रात के प्रथम याम में प्रतीत्य-समुत्पाद का पहले अनुलोम मनन किया इसके बाद वे इसका प्रतिलोम मनन किया बोधिवृक्ष को देखा। बिना पलक झपकाये। ज्ञान प्राप्ति के बाद भगवान बुद्ध बोधगया में सात सप्ताह तक रहे। बुद्ध पूर्व से पश्चिम की ओर टहलते हुए बिताए। वे बौद्ध धर्म के सबसे गंभीर दर्शन अभिधम्म पर विचार किये।
भन्ते! भगवान! हमारे मट्ठे और गुड के लड्डुओं को स्वीकार कीजिये, जिससे कि चिरकाल तक हमारा हित और सुख हो।
जब भगवान बुद्ध उनका दान स्वीकार कर लेते हैं।
तपस्सु और भल्लिक थे बुद्ध के पहले उपासक
बौद्ध धर्म का ब्रह्मणों से बहुत ही गहरा संबंध रहा है। यह संबंध कोई नया नहीं है बल्कि यह ज्ञान प्राप्ति के महज पांच सप्ताह बाद ही स्थापित हो गया था। बुद्ध ने कभी भी ब्राह्मण के संबंध में अपमानित शब्दों का प्रयोग नहीं किया। वे हमेशा से ब्राह्मण धर्म का पालन करने वालों का सम्मान किये।
चौथे सप्ताह में, बुद्ध ने जिस स्थान पर पुरा सप्ताह बिताया उसका नाम है रत्न गृह चैत्य। रत्न का अर्थ है ज्ञान रूपी रत्न। बौद्ध धर्म अपने ज्ञान विधि और दर्शन के कारण ही पुरे विश्व में प्रसिद्ध हुआ। भगवान बुद्ध ने मध्यम मार्ग की खोज की। वे न तो अत्यंत कठोर पथ को अपनाने को कहे और न ही अपना जीवन बिल्कुल ही सुख सुविधाओं से घिरे होकर बिताने को कहा। ज्ञान प्राप्ति के बाद 45 वर्षों तक वे धम्म की वर्षा लोगों के लिए पैदल चलकर किये।
तीसरे सप्ताह में बुद्ध पूर्व से पश्चिम की ओर टहलते हुए बिताए। पुरा एक सप्ताह तक वे टहलते रहे। इस टहलने के स्थान को रत्न-चंक्रम चैत्य के नाम से जाना जाता है। इस समय, उन्होंने अपने दर्शन किए हुए सत्यों की समझ को और गहरा करना जारी रखा।